शिशु के जन्म के पश्चात संस्कार सीधे शिशु पर किए जाते हैं। धीरे-धीरे शिशु बड़ा होता है, उसकी कर्मेन्द्रियाँ और ज्ञानेन्द्रियाँ सक्रिय होने लगती है। कर्मेन्द्रियाँ उसे क्रिया में प्रवृत्त करती है और ज्ञानेन्द्रियाँ उसे नये-नये अनुभव करवाती है। इसलिए अब शिक्षा क्रिया आधारित व अनुभव आधारित होती है। शिशु क्रिया करके अनुभव प्राप्त करता है, ये अनुभव प्राप्त करना ही उसकी शिक्षा है। उसे सिखाने में माता की भूमिका सबसे अधिक होती है, अतः माता को प्रथम गुरु कहा गया है। यह सिखाना परिवार में होता है, अतः परिवार प्रथम पाठशाला बन जाता है। नव दम्पती के लिए तथा शिशुवाटिका में पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए यह पुस्तक ‘माता की पाठशाला’ एक मार्गदर्शिका सिद्ध होगी।
माता की पाठशाला
₹80.00
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